एक जमीं तू , एक आसमां मैं

कहाँ मिलोगे (हिंदी कविता, इश्क़)



एक जमीं तू, एक आसमां मैं
क्षितिज के किस कोने मिलोगे ?

मैं बिता पल , तू भविष्य
वर्तमान में कहाँ मिलोगे ?

तू वक़्त की धार पे
मैं मौत के कगार पे
सुरमयी सपनो की
परछाई अपनो की
किस खाई के पार मिलोगे ?

एक जमीं तू, एक आसमां मैं
क्षितिज के किस कोने मिलोगे ?

सवालों की दुनियाँ
उत्तर कहाँ खोजती हैं
सीरत कुर्बान हो गयी
सूरत से अब तोलती हैं
एक अश्क़ तकिये पे उतार रखा हैं
बिस्तर के किस पार मिलोगे ?

एक जमीं तू, एक आसमां मैं
क्षितिज के किस कोने मिलोगे ?

आँचल लहराओ तो
फिजाओं में कुछ बात बने
केश बिखराओ तो
हवाओ में कुछ बात बने
कितनी बसंत आ के चली गयी
तुम किस ऋतु के साथ मिलोगे ?

एक जमीं तू, एक आसमां मैं
क्षितिज के किस कोने मिलोगे ?

इस हयात का
बिस्तर समेटता हूँ
इस पार का ये
सफर समेटता हूँ
जिस्म की कुछ यादें रखी है मैंने
पता है मुझे तुम कहाँ मिलोगे

एक जमीं तू, एक आसमां मैं
क्षितिज के किस कोने मिलोगे ।

             -सोमेन्द्र सिंह 'सोम'

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