मुफ़लिसी का दौर है(hindi kavita, gazal)

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मुफ़लिसी का दौर है(hindi kavita, gazal)



वक़्त के धुँधले आसमां में
गरमाईसों का दौर है

छू के निकले उसकी गली को
अजीब फ़रमाईसो का दौर हैं

वो कहाँ, मैं कहाँ, पथ बिखरे
बेजुबां आजमाइशों का दौर हैं

चलो, अब चल दे यहाँ से
बेबुनियादी समझाईसो का दौर हैं

अच्छा हुआ तुम उधर चल दिए
इधर तो सिफ़ारिशों का दौर हैं 

मुआफ़ी, ये सब दिमाग का शोर हैं
दिल मे तो सरफ़रोशी का दौर हैं

मुझे मेरे अंदर रखने की कोशिश
बेटोक चापलुसी का दौर हैं

इधर आवो तो आसमां भी ले आना
जमीं पे मुफ़लिसी का दौर हैं

थोड़ी बेबाकी हमको भी अता कर
तुम्हारी ख़्वाईसो का दौर हैं

रास्ते मंजिले तुमसे दूर 'सोम'
पगडंडियों की बैशाखियों का दौर हैं

अब ज्यादा क्या कहे 'सोम' 
दिलेबात दिल मे रखने का दौर हैं 


       - सोमेन्द्र सिंह 'सोम'



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खुद को वो कवि कहता है(हिंदी कविता)

कल्पना, अंत नहीं जिसका 
विचार, एक छोर नहीं मिला उसका 
गुमनाम ज़िन्दगी में
यथार्थ लिखने से डरता है
खुद को वो कवि कहता है

बचपन क्या, उस कटी पतंग जैसे है
मिट्टी कि सौंधी खुश्बू में, मुस्कुराहटें क्या वैसे हैं

क्या वैसे ही है, चातक की कहानी 
पतझड़ों में है वैसी ही रवानी
क्या वैसे ही दादी की गोद में सोते है
क्या अभी भी शिकायते करती है नानी 

है इश्क़ उसे फूलो से
फूल को इश्क़ कहने से डरता है
हाँ वो, खुद को वो कवि कहता है।

किसान ने पसीना उपजा
लहु क्रांति बोता था 
आँसुओ के पनघट पर 
रिमझिम सावन सोता था 

एक कतरा लहू क्या बरसा
आग शब्दों में लगती थी
एक कदम क्या डगमगाया 
साथ कायनात चलती थी
तेरे एक शेर पे मरती थी दुनियाँ
तेरे एक शेर पे जिंदा लाशे चलती थी 

आँखों में आग लिए 
सफर सुहाना लिखता है
अँधेर कोठरी को
बस कुछ दिन का, उजाला लिखता है
शब्दों के बवंडरों में फँसा
वक़्त-विरासत, वतन-सियासत लिखता है
जीवंत जमीं की मृत चिता पे 
गिरे अश्को को क्रांति लिखता है
खुद को वो कवि कहता है
वो खुद को कवि कहता है


          - सोमेन्द्र सिंह 'सोम'



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कैसे मोहब्बत के तराने गाऊं (hindi kavita)


आसमां आग उगलता
जमीं पे 
कैसे मोहब्बत के तराने गाऊँ

हर दिल है रूठा रूठा
किस किस को
जाके मैं मनाऊँ

वो कल भी मरते थे
वो आज भी मरते हैं
वो सोहन चिड़ी को
आज भी दाना देते हैं

तेरे लहु के कतरे को
कहाँ कहाँ मैं दिखाऊँ
कैसे मोहब्बत के तराने गाऊँ

वो खेत खलिहानों में जगते है
वो कारखानों में सहते है
जो पंच भूतो को अपने 
हाथो से सींचा करते हैं

तेरे हाथो के छालों को
हाथो की लकीरों में दबाऊँ
कैसे मोहब्बत के तराने गाऊँ

वक़्त गवाही देता है
वक़्त के साथ चलते हैं
उजले कपड़ो वाले तन में
काले साँप रहते हैं

उसके घर के बच्चे भूखे
मैं अपनो को कैसे खिलाऊँ
कैसे मोहब्बत के तराने गाऊँ

आसमां आग उगलता
जमीं पे 
कैसे मोहब्बत के तराने गाऊँ

        - सोमेन्द्र सिंह 'सोम'



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सवाल (हिंदी कविता)

आग मचलती हैं
कफ़न निकलता हैं
तेरी राख को 
चद्दर की तरह
जिस्म पे लपेटता हैं
पूछता हैं
तुमसे वो
उसकी रूह का अंश कहा हैं

उसकी साँसों 
उसके अश्कों
उसका लहू
उसकी खुश्बू का अंश कहा हैं
जिंदा था जिसके सहारे

लपेटके उसको रख देते 
तो उसका भी वक़्त कट जाता
छोड़ा था जिस जगह
राख के कतरे में
वो गुम हो गया उस जगह

एक परछाई
एक जिस्म
दोनो की तलाश में 
अब मैं हूँ

कुछ मिटटी के नीचे मिला
कुछ राख के ऊपर
दोनों को समेटता
अब मैं हूँ

एक मेरे अंदर
एक मेरे बाहर
बाते दोनो से अक्सर
करता अब मैं हूँ

सवाल भी
जवाब भी
दोनो करता
अब मैं हूँ


        - सोमेन्द्र सिंह 'सोम'



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लोकतंत्र का खेल(चुुुनाव पर कविता)

खेल शुरू 
खेल शुरू
मुखौटे बदलने का खेल शुरू

एक वक्त से भाग रहा है
एक वक्त से जाग रहा है
चलो चलते हैं
सैर करते हैं

संसद के चोरो से 
गांव के मोरो तक
मोर नाचता है
बारिश का संदेशा लाता है
संसद जमीं पे उतरती है
चुनाव का अंदेशा लाती है 

खेल शुरू
खेल शुरू
मुखोटे बदलने का खेल शुरू

नाम बदलते
जिस्म बदलते 
गुण बदलते
गुणधर्म बदलते

सब बदलता
नही बदलता बस ये देश
राही बदलता रहगुजर बदलता
नही बदलता बस ये परिवेश

माँ शारदे माँ शारदे 
अज्ञानता से हमे तारदे

लोकतंत्र का 
खेल शुरू
लोक की 
या तंत्र की
चलो खेलते हैं 
एक उंगली की ताकत पे

            -सोमेन्द्र सिंह 'सोम'



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